आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग करने वाली BAP पहली बार लड़ेगी लोकसभा चुनाव, बढ़ गई बीजेपी-कांग्रेस की टेंशन!

गौरव द्विवेदी

07 Apr 2024 (अपडेटेड: Apr 7 2024 11:11 PM)

बांसवाड़ा लोकसभा सीट पर मुकाबला भारतीय आदिवासी पार्टी, बीजेपी और कांग्रेस के बीच है. पहला लोकसभा चुनाव लड़ रही BAP के प्रत्याशी राजकुमार रोत ने नामांकन रैली के सैलाब से हर किसी को चौंका भी दिया.

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इस बार लोकसभा चुनाव को लेकर राजस्थान (Rajasthan) में कई सीटों पर कड़ा मुकाबला नजर आ रहा है. जानकार मानते हैं कि पिछले दो चुनावों की तरह इस बार 25 सीटें जीतकर हैट्रिक लगा पाना बीजेपी (BJP) के लिए आसान नहीं है. कई सीटों पर सत्तारूढ़ दल को चुनौती झेलनी पड़ रही है. ऐसी ही टक्कर नजर आ रही है बांसवाड़ा (Banswara) लोकसभा सीट पर. इस क्षेत्र में मुकाबला भारतीय आदिवासी पार्टी (BAP), बीजेपी और कांग्रेस के बीच है.

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पहला लोकसभा चुनाव लड़ रही BAP के प्रत्याशी राजकुमार रोत ने नामांकन रैली के सैलाब से हर किसी को चौंका दिया. BAP दक्षिण राजस्थान में ताकत दिखाने की कोशिश में है. जबकि कांग्रेस और बीजेपी, दोनों के लिए इस क्षेत्र में BAP को रोकना बड़ी चुनौती है. 

 

 

हालांकि बीजेपी ने यहां कांग्रेस को बड़ा झटका देते हुए पूर्व मंत्री और इस क्षेत्र के दिग्गज नेता महेंद्रजीत सिंह मालवीया को उम्मीदवार घोषित किया है. जबकि कांग्रेस से अरविंद डामोर चुनावी मैदान में हैं.

BAP के लिए क्यों अहम है चुनाव?

दरअसल, "बाप" पार्टी का उदय भारतीय ट्राइबल पार्टी यानी बीटीपी से अलग होने के बाद हुआ. पार्टी का गठन 10 सितंबर 2023 को किया और इस पार्टी ने हाल के ही विधानसभा चुनाव में राजस्थान में तीन और मध्य प्रदेश में एक सीट जीती. अब इस पार्टी की निगाहें लोकसभा चुनाव पर है. पार्टी दक्षिण राजस्थान की तीन लोकसभा सीट उदयपुर, बांसवाड़ा-डूंगरपुर और चित्तौड़गढ़ पर चुनाव लड़ रही है. साथ ही जालौर-सिरोही, पाली और सवाईमाधोपुर में उन्होंने उम्मीदवार उतारा है.

यही नहीं, गुजरात में 5 सीट, झारखंड में बिरसा मुंडा की जन्मस्थली खूंटी और मध्य प्रदेश में आदिवासी नायक टंट्या भील की जन्मस्थली खंडवा समेत कुल 3 सीटों पर भी बाप ने चुनौती देने का मूड बना लिया है. 

जानकार की मानें तो यह चुनाव सिर्फ राजनीतिक लड़ाई भर नहीं है, बल्कि BAP के एजेंडे के चलते यह चुनाव सामाजिक मुद्दों के लिहाज से भी काफी अहम है. इस पार्टी की मांग राजस्थान समेत गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के 42 जिलों को मिलाकर भील प्रदेश बनाने को लेकर भी है. दरअसल, राजस्थान में 28 लाख, गुजरात में 34 लाख, महाराष्ट्र में 18 लाख और मध्यप्रदेश में करीब 46 लाख लोग आदिवासी समाज से हैं. 

भारतीय आदिवासी पार्टी के संस्थापक सदस्य कांतिभाई आदिवासी पार्टी के मुद्दों पर बात करते हुए बताते हैं "हमारा प्राथमिक मुद्दा भील प्रदेश ही है. पिछली बार जब बीटीपी से बांसवाड़ा-डूंगरपुर चुनाव लड़ा था, वो जोश और जूनून इस बार भी कायम है. उन्होंने कहा कि महेंद्रजीत सिंह मालवीया के समर्थकों का मनोबल टूट चुका है. जो समर्थक उनके सहारे कांग्रेस को मजबूत करने के सपने देखते थे, वही मालवीया आज की तारीख में वो बीजेपी के हो गए हैं. अंदरखाने बीजेपी वाले भी नाराज है कि बाहरी कहा से आ गया." कांग्रेस से गठबंधन नाकाम होने को लेकर उन्होंने कहा कि कोशिश हुई थी, लेकिन सफल नहीं हो पाई. हम अकेले इस चुनाव को लड़ेंगे और  जल, जंगल, जमीन की लड़ाई को आगे ले जाएंगे.

वहीं, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष रहे और राजनीतिक विश्लेषक प्रो. अरूण चतुर्वेदी का कहना है कि हाल के विधानसभा चुनाव के परिणाम को देखें तो पूरे लोकसभा क्षेत्र में बाप पार्टी की बढ़त साफ तौर पर दिख रही है. जबकि उदयपुर लोकसभा सीट की 4 विधानसभा सीट पर भी बाप मजबूत है. अगर बांसवाड़ा सीट पर बाप की जीत होती है ये साफ है कि आने वाले राजस्थान की सियासत में भी यह पार्टी काफी अहम निभाएगी. 

मालवीया का बीजेपी के साथ जाना सही फैसला?

अब सवाल यह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे मालवीया और बीजेपी, दोनों को इस चुनाव में साथ आने की क्यों जरूरत पड़ गई? इस पूरे मामले में CSDS के समन्वयक (राजस्थान) प्रो. संजय लोढ़ा का कहना है कि मालवीया की लोकप्रियता की बात को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन बावजूद इसके मालवीया का बीजेपी में जाना बहुत समझदारी वाला निर्णय नहीं दिख रहा. उनका बीजेपी के साथ जाना उनका व्यक्तिगत नुकसान साबित हो सकता है. क्योंकि संभावना यह भी है कि बीजेपी में रहते उन्हें आदिवासी समाज का उतना बड़ा समर्थन नहीं मिलेगा, जितना कांग्रेस में रहते हुए मिल रहा था. बीजेपी का बढ़ता जनाधार और मालवीया के कद के चलते भले ही पार्टी यहां जीत भी हासिल कर लें, लेकिन बीजेपी में मालवीया का राजनीतिक भविष्य आगे बढ़ना मुश्किल हो सकता है. 

दूसरी ओर, बात बीजेपी की करें तो प्रो. लोढ़ा का कहना है "इस क्षेत्र में बीजेपी अपने हर प्रभावी नेता को आजमा चुकी है. इस क्षेत्र में 30-40 वर्षों में बीजेपी और आरएसएस ने भी एक लंबी लड़ाई लड़ी है. आदिवासियों को वनवासी की संज्ञा देकर संघ उन्हें हिंदू समाज का हिस्सा बताता हैं. जिसके लिए लगातार संघ कोशिश भी कर रहा है." 

आरएसएस की क्या रहेगी भूमिका?

वहीं, सवाल आरएसएस की भूमिका को लेकर भी है. क्योंकि जनजाति क्षेत्र में RSS का अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण परिषद बीतें कई दशकों से काम कर रहा है. इसे लेकर राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद के प्रदेश संगठन मंत्री जगदीश कुल्मी का कहना है "भील प्रदेश की मांग और राम को काल्पनिक बताने वाला विचार भारत और सनातन का नहीं हो सकता. हमारा संगठन जनजाति हितों के लिए तत्पर है. अगर हमारी संस्कृति पर कोई भी आघात करेगा तो हम उसे नहीं सहन करेंगे." उन्होंने आगे कहा कि हमारा संगठन पूरे देश में काम करता है. हम लगभग 12 करोड़ आदिवासियों के बीच शिक्षा, चिकित्सा और स्वालंबन के क्षेत्र में काम कर रहे हैं. जनजाति समाज का सर्वांगीण विकास और समाज में धार्मिक-सामाजिक नेतृत्व खड़ा करना ही हमारा मकसद है.

उन्होंने कहा कि हमारे कार्यकर्ता इस चुनाव में सामाजिक उद्देश्यों के साथ जमीन पर जाएंगे. हमारे दो ही उद्देश्य है, पहला शत प्रतिशत मतदान और दूसरा राष्ट्रहित में मतदान. इसके लिए हम हमारे परिवार, स्कूलों के पूर्व छात्र और समाज के बीच जा रहे हैं. इस चुनाव में मतदान के लिए सभी को सक्रिय कर रहे हैं. हमारा बड़ा उद्देश्य यह भी है कि जनजाति समाज के सदस्य धर्म और संस्कृति को छोड़ते हैं तो उन्हें जनजाति सूची से डिलिस्ट किया जाए. उन्हें आरक्षण समेत तमाम सुविधाओं से वंचित किया जाए. इसके लिए भी काम कर रहे है. 

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