राजस्थान के सियासी किस्से एपिसोड 1: गहलोत Vs पायलट पॉलिटिकल ड्रामा की इनसाइड स्टोरी
Rajasthan Political Crisis: राजस्थान की सियासत में फिलहाल एक ही चर्चा है…2018 में बनी गहलोत सरकार क्या कार्यकाल पूरा करेगी या आगामी चुनाव से पहले पंजाब के तर्ज पर सीएम का फेस चेंज होगा? साल 2020 से सरेआम हुआ पॉलिटिकल ड्रामा कब और कैसे थमेगा? इसके परिणाम क्या होंगे? किस चेहरे पर होगा अगला चुनाव? […]
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Rajasthan Political Crisis: राजस्थान की सियासत में फिलहाल एक ही चर्चा है…2018 में बनी गहलोत सरकार क्या कार्यकाल पूरा करेगी या आगामी चुनाव से पहले पंजाब के तर्ज पर सीएम का फेस चेंज होगा? साल 2020 से सरेआम हुआ पॉलिटिकल ड्रामा कब और कैसे थमेगा? इसके परिणाम क्या होंगे? किस चेहरे पर होगा अगला चुनाव? किस दिशा में जाएगी राजस्थान की सियासत? भारत जोड़ो यात्रा क्या राजस्थान में अपनी जर्नी पूरी करेगी या यात्रा की राह में आएंगे रोड़े? राजस्थान में सत्ता का फेस युद्ध क्या अब चरम पर होगा या आ गई है फैसले की घड़ी?
इन सवालों के जड़ में जाएंगे तो हमें कहानी साल 2013 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव से शुरू करनी पड़ेगी. क्योंकि विवाद के बीज अंकुरित होने के लिए इसी वर्ष से जमीन तैयार होने लगी थी. समय-समय पर उसमें खाद पानी पड़ा और 2018 में चुनाव के ऐन वक्त पर टिकटों के बंटवारे के समय बीज बो दिया गया. फिर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के बहुमत में आने और अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनाए जाने के ऐलान के बाद ही विवाद का बीज अंकुरित हो गया जिसमें अब कई शाखाएं निकल चुकी हैं. इस विवाद की पूरी पटकथा को हम तीन हिस्सों में पाठकों तक लेकर आए हैं. पढ़िए पहला एपिसोड…
सीएम गहलोत के गद्दार वाले बयान के बाद न केवल राजस्थान की सियासत में गर्मी एक बार फिर बढ़ गई है बल्कि इसमें जयराम रमेश के कठोर निर्णय वाले बयान ने अब फैसले की घड़ी के करीब होने का इशारा किया है. इधर पायलट ने भी राजस्थान Tak को दिए खास इंटरव्यू में साफ संकेत दिया कि गहलोत के रहते 2023 में राजस्थान में सरकार रिपीट नहीं होगी.
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विवाद की इस कहानी को पूरा समझने के लिए शुरू करते हैं साल 2013 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव से जब कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था.
सत्तासीन कांग्रेस को चुनाव में मिली करारी हार
बात वर्ष 2013 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव की है. तब कांग्रेस सत्ता में थी और अशोक गहलोत सीएम थे. उधर विपक्षी पार्टी बीजेपी इस चुनाव को जीतने के लिए पूरा जोर लगाए हुई थी. चुनाव परिणाम चौंकाने वाले थे. 200 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस महज 21 सीट पर कब्जा कर पाई. अब तक की कांग्रेस की ये सबसे बड़ी हार थी.
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माना गया…गहलोत का जादू फीका पड़ गया
इस हार के बाद माना गया कि गहलोत का जादू फीका पड़ गया. इधर गहलोत राजस्थान की राजनीति से दूर केंद्र में आ गए. वर्ष 2017 में आया एक ऐसा मौका जिसमें गहलोत ने ये साबित कर दिया कि वे राजनीति के जादूगर केवल कहे ही नहीं जाते हैं बल्कि हैं भी.
गहलोत के नेतृत्व में लड़ा गया गुजरात चुनाव
अशोक गहलोत को गुजरात का प्रभारी बनाया गया. सालों बाद ऐसा पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस ने गुजरात चुनाव लड़ा है. हालांकि कांग्रेस हार गई पर हार का मार्जिन बहुत कम था. इस चुनाव के बाद गहलोत की तारीफ हुई और वे राहुल गांधी के करीब आ गए.
इधर राजस्थान में सचिन पायलट उभरे
साल 2018 में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुए. बीजेपी के सत्ता में होने के बावजूद कांग्रेस ने अलवर और अजमेर लोकसभा सीट पर कब्जा जमा लिया. यहां सचिन पायलट की रणनीति सबने देखी और तारीफ की.
टिकट बंटवारे में दो बड़े चेहरे, फिर शुरू हुआ विवाद
साल 2018 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव के पहले पार्टी ने प्रदेश की कमान सचिन पायलट को सौंप दी. फिर शुरू हुआ टिकट बंटवारा. कांग्रेस की परंपरा के मुताबिक जो AICC (अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी) का सदस्य है, अगर उसके राज्य में चुनाव है, तो वह टिकट बांटने वाली कमेटी में शामिल नहीं हो सकता. कहा जाता है कि गहलोत ने ये परंपरा ही नहीं तोड़ी बल्कि 200 में से 80 टिकट अपने चहेतों को दिलवाए. सचिन पायलट के खाते में महज 50 के करीब टिकट आए. बाकी के क्षेत्रीय समीकरणों के हिसाब से टिकट बांटे गए. टिकट बंटवारे के दौरान ही गहलोत और सचिन का विवाद शुरू हुआ.
इसलिए गहलोत ने तोड़ी परंपरा
राजनीति के विशेषज्ञों की मानें तो सचिन पायलट की मेहनत और राजस्थान में चुनाव से पहले ही उनके सीएम बनने के चर्चे ने गहलोत को परंपरा तोड़ने पर मजबूर किया. गहलोत ये नहीं चाहते थे कि उनके रहते सचिन सीएम बनें. इसलिए गहलोत ने खुद समीकरण बनाया. ऐसा माना जाता है कि गहलोत ने अपने खेमे के बचे लोगों को निर्दलीय खड़ा कर दिया. दो-तीन को छोड़कर बाकी सभी जीत भी गए. इधर पायलट के कई करीबी चुनाव हार गए.
चुनाव जीतने के बाद गहलोत ने फिर दिखाया जादू
चुनाव का रिजल्ट घोषित हुआ. कांग्रेस के खाते में 100 सीटें आईं. सरकार बनाने के लिए एक MLA की जरूरत थी. अशोक गहलोत ने 13 निर्दलीय और राष्ट्रीय लोकदल के विधायकों को मिलाकर कांग्रेस आलाकमान को अपनी ताकत दिखा दी. ऐसे में आलाकमान ने मुख्यमंत्री का ताज गहलोत के सिर रख दिया. इधर पायलट ने इसका विरोध किया. तर्क दिया कि पिछले 5 सालों में उन्होंने राजस्थान में जी तोड़ मेहनत की है. हालांकि उन्हें डिप्टी सीएम के पद पर ही संतोष करना पड़ा.
भारी असंतोष के बीच दिखने लगा मनमुटाव
वक्त आया शपथ ग्रहण समारोह का. इस दौरान सचिन पायलट ने अपनी कुर्सी राज्यपाल के बगल में लगाने के लिए कहा. सूत्रों की मानें तो गहलोत ने इसपर आपत्ति जताई और कहा- डिप्टी सीएम कोई संवैधानिक पद नहीं. फिर भी पायलट ने कुर्सी लगवाई. बात यहीं खत्म नहीं हुई. मंत्रालयों के बंटवारे में सचिन पायलट को पीडब्ल्यूडी मिला पर गहलोत ने यहां भी उनके पर कतर दिए. भले ही पीडब्ल्यूडी मंत्री पायलट थे पर गहलोत ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि बड़े प्रोजेक्ट बिना सीएमओ के पास नहीं होंगे.
विधानसभा में एंट्री को लेकर विवाद
सरकार बनने के बाद विधानसभा की कार्यवाही के पहले दिन पायलट मुख्य द्वार से सदन में गए. चूंकि मुख्य द्वार से राज्यपाल, विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री जाते हैं. जब वे दूसरे दिन मुख्य द्वार से गए तो विधानसभा के मास्टर ने उन्हें रोक लिया. उन्हें मंत्रियों के एंट्री से आने के लिए कहा पर पायलट वहीं अड़ गए. ऐसे में गहलोत ने बीच का रास्ता निकाला और उन्हें आगंतुकों वाले रास्ते से आने की सुविधा दी गई. अपनी ही सरकार में होते हुए पायलट ने अलवर गैंगरेप और कोटा के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत पर गहलोत सरकार को घेर दिया.
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